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ग्राउंड रिपोर्ट: यह निर्दलीय विधायक राजस्थान में कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी मुसीबत बन सकता है!
आज से कोई 15 साल पहले की बात है. जोधपुर में जाट समाज की एक सभा हो रही थी. अटल बिहारी वाजपेयी उस समय प्रधानमंत्री हुआ करते थे. 1999 में उन्होंने राजस्थान के जाटों को केंद्र की OBC लिस्ट में जगह दी. 2003 के राजस्थान विधानसभा चुनाव में वो अपने इसी काम को सियासी तौर पर भुनाना चाहते थे. उस समय राजस्थान बीजेपी के पास कोई बड़ा जाट चेहरा नहीं हुआ करता था. इस निर्वात को भरने के लिए दिल्ली के जाट नेता और वाजपेयी सरकार के मंत्री साहब सिंह वर्मा को राजस्थान के जाट बाहुल्य वाले इलाकों में प्रचार के लिए भेजा गया. जोधपुर की इस सभा को भी वही संबोधित करने जा रहे थे.
दोपहर के 12 बजने को थे. साहब सिंह वर्मा अभी मंच पर पहुंचे नहीं थे. उनके आने से पहले भीड़ को बांधे रखने के लिए मंच स्थानीय नेताओं के हवाले किया गया था. लोग जानते थे कि यह हर राजनीतिक जलसे में मुख्यवक्ता के बोलने से पहले की जरुरी प्रक्रिया है. वो पूरी ऊब के साथ इन वक्ताओं को सुने जा रहे थे. इस बीच मंच पर एक नौजवान को बुलाया गया. बेतरतीब तरीके से बढ़ी हुई दाढ़ी वाले इस नौजवान ने अपने भाषण की पहली कुछ लाइनों में ही जनता को बांध लिया. उसकी आवाज बुलंद थी. उसके पास शब्दों का टोटा नहीं था. वो बोलने के हुनर में तब से माहिर हो चुका था, जब वो राजस्थान विश्वविद्यालय का अध्यक्ष हुआ करता था. उसने बोलना शुरू किया-
“जाट बिरादरी, जो राजस्थान में सबसे ज्यादा बलवान, निडर और संख्या के लिहाज से सबसे मजबूत बिरादरी है. राजनीतिक दृष्टि से भी यह बिरादरी राजस्थान में सबसे आगे है. जाटों को मिला आरक्षण लोगों को सुहाया (पसंद नहीं आया) नहीं. सोशल जस्टिस फ्रंट के नाम से भाई कल्याण सिंह कालवी के लड़के लोकेंद्र सिंह कालवी ने 17 दिसंबर को सीकर के अन्दर एक रैली की. इस रैली में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का षड्यंत्र शामिल है.
पिछले लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में पहली बार गांव से आने वाली जाट महिलाएं सबसे ज्यादा संख्या में चुनकर आईं. अशोक गहलोत कभी नहीं चाहेंगे कि राजस्थान में जाट प्रशासनिक तौर पर मजबूत हों. अगर राजस्थान में जाट प्रशासनिक तौर पर मजबूत हो गया तो यह इनको कुछ भी निकालकर देने वाला नहीं है.”
इस नेता का नाम था हनुमान बेनीवाल. वो अपने भाषण में लोकेंद्र कालवी की जिस सीकर रैली का जिक्र कर रहे थे वो अपने एक बयान के चलते विवाद में फंस गई थी. इस विवाद को समझने के लिए सीकर 1998 में हुई रैली का जिक्र जरुरी है. 1998 में एक नाटकीय घटनाक्रम में इंद्र कुमार गुजराल को प्रधानमंत्री पद से रुखसत होना पड़ा. लोकसभा के लिए मध्यावधि चुनाव हुए. अटल बिहारी वाजपेयी उस दौर में बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हुआ करते थे. बीजेपी ‘लक्ष्य अटल, वोट कमल’ के नारे पर चुनाव लड़ रही थी.
चुनाव प्रचार के लिए अटल बिहारी वाजपेयी राजस्थान के सीकर भी आए. राजस्थान में जाट आरक्षण आंदोलन अपने चरम पर था. सीकर में जाट बिरादरी के वोट बड़ी तादाद में थे. इस समय तक बीजेपी की छवि शहरी पार्टी के तौर पर ही थी. खेतिहर जाटों को अपने खेमे में लाने के लिए उन्होंने अपनी सीकर रैली में सरकार बनने के बाद जाटों को ओबीसी में आरक्षण देने की घोषणा कर दी.
देवी सिंह भाटी उस दौर में राजपूतों के कद्दावर नेता हुआ करते थे. वो बीकानेर के कोलायत से लगातार पांच विधानसभा चुनाव जीत चुके थे. इधर करणी सेना वाले लोकेंद्र सिंह कालवी भी राजपूत समाज में अपनी पकड़ बनाने की जद्दोजहद में लगे हुए थे. दोनों उस समय बीजेपी के नेता हुआ करते थे. दोनों ने मिलकर अगड़ी जातियों के लिए आरक्षण आंदोलन चलाना शुरू किया. इन्होंने इसके लिए एक संगठन भी खड़ा किया, ‘सामाजिक न्याय मंच’. यह जाट आरक्षण आंदोलन का काउंटर नैरेटिव था.
लोकेंद्र कालवी और देवी सिंह भाटी सामाजिक न्याय मंच के बैनर तले जगह-जगह पर सभाएं कर रहे थे. अपनी सीकर रैली में लोकेंद्र कालवी ने आरक्षण की आलोचना करते हुए कहा था, ‘यहां घोड़ों को नहीं मिल रही है घास, और गधे खा रहे हैं चवनप्राश’ .आरक्षण के खिलाफ यह जुमला इससे पहले भी कई मंचों पर इस्तेमाल हो चुका था. राजस्थान में किवदंतियों के चलते इस जुमले ने विवाद को पैदा कर दिया. हर इलाके में जाति विशेष को चिढ़ाने के लिए कुछ शब्द गढ़े जाते हैं. पश्चिमी राजस्थान में जाटों को चिढ़ाने के लिए ‘गधा’ कहा जाता है. इस नुक्ते से देखने पर कालवी के बयान के मायने बदल जाते हैं.
सीकर वो जगह थी जहां जाटों ने अपने लिए आरक्षण लिया. सीकर वो जगह थीं जहां लोकेंद्र सिंह कालवी ने जाट विरोधी ध्रुवीकरण की कोशिश में विवादित बयाना दिया था. लोकेंद्र सिंह कालवी की रैली के 15 साल बाद सीकर में एक और रैली हुई. यह घटनाओं के चक्र के पूरे होने जैसा था. 10 जून 2018 को राजस्थान के सीकर में ‘ किसान हुंकार रैली’ का चौथा जुटान था. इससे पहले वो नागौर, बाड़मेर और बीकानेर में इसी नाम रैली कर चुके हैं. बाड़मेर में उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी से ज्यादा भीड़ जुटाकर राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां हासिल की थीं. 2003 में अपने लिए सियासी जमीन की तलाश कर रहे हनुमान बेनीवाल डेढ़ दशक के भीतर एक मंझे हुए राजनेता के तौर पर उभर चुके हैं. उनके प्रभाव का दायरा एक विधानसभा सीट से बढ़कर पांच-छह जिलों तक फ़ैल चुका है.
2008 में एक फिल्म आई थी ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’. इस फिल्म का एक गाना, ‘जय हो’ बहुत हिट हुआ था. गुलजार के लिखे बोल और सुखविंदर सिंह की आवाज में रहमान का संगीत हमेशा मारक होता है. 2009 में कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में अपने प्रचार अभियान में इस गाने के इस्तेमाल के लिए टी-सीरीज को दो लाख डॉलर चुकाए थे. इस गाने के बोल इस तरह हैं –
“चख ले हां चख ले ये रात शहद है
चख ले रख ले
दिल है दिल आखिरी हद है
रख ले काला काला काजल तेरा
कोई काला जादू है ना..
आजा आजा जींद शामियाने के तले
आजा ज़री वाले नीले आसमान के तले
जय हो…”
किसान हुंकार रैली के पोस्टर पर जलसा शुरू होने का वक़्त 11 बजे दर्ज था. हनुमान बेनीवाल को मंच पहुंचते-पहुंचते 2 बज गए. जैसे ही मंच की तरफ बढ़ने लगे पंडाल में चारों तरफ बिखरे लोग मंच के सामने सिमट आए. जिन्हें जगह नहीं वो मिली वो दो पंडालों की सरहद के तौर पर लगाए गए लोहे के पाइपों पर चढ़ गए. बैकग्राउंड में यही गाना बज रहा था. जिसके बोलों से किसी को कोई मतलब नहीं था. लोग गाने के आखिरी हिज्जे को जोर से गा रहे थे. इस तरह जब हनुमान बेनीवाल मंच पर चढ़े, स्पीकर से लेकर भीड़ तक हर जगह ‘जय हो-जय हो’ की प्रतिध्वनि थी.
एक छात्रनेता इतना असरदार क्योंकर हुआ?
आखिर इस आदमी के इतना लोकप्रिय होने की वजह क्या है? क्यों हरियाणा से लेकर बाड़मेर तक लोग बेनीवाल की रैली अटेंड करने पहुंच जा रहे हैं. इसका जवाब हमें मिला रैली में आए हुए पप्पू बेनीवाल से. चुरू में रहने वाले पप्पू एक दफा जोधपुर जा रहे थे. जोधपुर के पास उनकी गाड़ी का एक्सीडेंट हो गया. उन्होंने आधी रात को मदद के लिए हनुमान बेनीवाल के पास फोन किया. उनका कहना है कि हनुमान बेनीवाल आधे घंटे में खुद मौके पर पहुंच गए थे. उनकी खुद की विधानसभा में आपको ऐसी दर्जनों कहानियां मिल जाएंगी. इलाके के हर आदमी के पास उनके नंबर हैं. वो अपना फोन खुद उठाते हैं. अगर नहीं उठा पाते तो पलटकर फोन करते हैं. उन्होंने लोगों में यह भरोसा कायम किया है कि वो किसी भी वक़्त उन तक पहुंच सकते हैं.
राजस्थान का पश्चिमी इलाका जाट राजनीति का गढ़ रहा है. किसी दौर में राजस्थान के तीन बड़े सियासी जाट घराने इसी इलाके से आते थे. नाथूराम मिर्धा, परसराम मदेरणा मारवाड़ में और शीशराम ओला शेखावाटी में जाटों के सबसे बड़े नेता थे. संयोगवश ये तीनों ही परिवार अपनी राजनीतिक जमीन गंवा चुके हैं. हनुमान के उभार के पीछे इस निर्वात ने भी बड़ी भूमिका निभाई है.
*जेएमएम समीकरण*
हनुमान बेनीवाल मंच पर पांच लाख लोगों को जुटाने का दावा कर रहे थे. हालांकि यह दावा ही था. लेकिन सीकर में जहां उनका पहले कोई ख़ास आधार नहीं था, उन्होंने इतनी भीड़ जुटा ली थी कि वो कांग्रेस और बीजेपी के नेताओं की पेशानी में बल ला पाएं. सीकर, झुंझनू, चुरू के अलावा बाड़मेर, नागौर, जोधपुर और बीकानेर से भी उनके समर्थक उनकी रैली में पहुंचे हुए थे. लगभग आधे घंटे के उनके भाषण में जो बात सबसे ज्यादा मार्के की थी वो कुछ इस तरह से बयान की गई-
*“बाड़मेर की रैली में जिस जेएमएम मोर्चे की घोषणा हमने की थी वो प्रदेश में आगे-आगे चलेगा.”*
जेएमएम मोर्चा आखिर है क्या? इस बात का जवाब देने से पहले चाय के कप पर हुई एक बतकही का जिक्र करना चाहिए. ये 2017 के जाड़े की बात है. हनुमान बेनीवाल नागौर में किसान हुंकार रैली का पहला संस्करण दाग चुके थे. जयपुर के जवाहर कला केंद्र में तीन पत्रकार इसी रैली पर बतकही कर रहे थे. इनमें से एक पत्रकार का कहना था कि अगर यह आदमी कायदे से चले तो राजस्थान का मुलायम सिंह यादव बन सकता है. सिर्फ जाटों के दम पर वो मुख्यमंत्री नहीं बन पाएंगे. सत्ता हासिल करने के लिए बेनीवाल को अल्पसंख्यक और दलित बिरादरी को अपने साथ लाना होगा.
बाड़मेर में घटनाओं ने प्रत्याशित मोड़ लिया. जनवरी 2018 में यहां हुई किसान हुंकार रैली में बेनीवाल जब मंच पर चढ़े तो उनकी जेब में नया जातिगत समीकरण पड़ा हुआ था. यह समीकरण था जेएमएमएम. माने जाट, मेघवाल, मुस्लिम और मीणा. मेघवाल पश्चिमी राजस्थान में दलितों की सबसे बड़ी बिरादरी है. इस मंच पर किरोड़ी लाल मीणा उनके साथ थे. मार्च 2018 में मीणा ने दस साल के लंबे वनवास के बाद बीजेपी का रुख किया. जाते-जाते वो अपने साथ इस समीकरण का आखरी ‘एम’ भी ले गए. सीकर में हनुमान बेनीवाल के पास सिर्फ जाट, मेघवाल और मुस्लिम का समीकरण बचा हुआ था. उनके मंच पर दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के कई नेता थे.
अपने भाषण में वो इस साल के 2 अप्रैल को हुए दलित आंदोलन का जिक्र कर रहे थे. उन्होंने बताया कि उस समय वो जैसलमेर में थे. उन्होंने उस समय प्रेस कॉन्फ्रेंस करके दलितों का पूरा समर्थन किया था. वो कहते हैं-
*“दिल्ली की सरकार ने 23 दलितों को मौत के घाट उतार दिया. मरने के लिए इस देश में या तो गुर्जर है, या जाट है, या दलित है, या मुसलमान है. ये वो तमाम कौमें हैं जिनका आज तक शोषण हुआ.”*
इससे पहले वो अपने की भाषण की शुरुआत तेजा जी, बजरंगबली और रामसा पीर के जयकारे से करते हैं. तेजा जी राजस्थान के लोक देवता हैं. जाटों के बीच उनकी मान्यता बहुत ज्यादा है. इसी तरह से रामदेव जी महाराज भी राजस्थान के लोक देवता हैं. उन्हें मुस्लिम समुदाय के लोग रामसा पीर के नाम से पूजते हैं. पोकरण के पास रामदेवरा में उनका बड़ा मंदिर है. रामदेव जी मेघवाल समुदाय में भी बेहद लोकप्रिय हैं. यह जयकारा उनके चुनावी समीकरण का स्पष्टीकरण था.
*कितना सफल होगा समीकरण?*
पिछले दौर में दलित उत्पीड़न के दो मामलों में राजस्थान, राष्ट्रीय मीडिया की चर्चाओं में रहा. पहला मौक़ा था डांगावास में दलित समुदाय पर हुआ हमला. नागौर की मेड़ता तहसील के गांव डांगावास में एक मामूली जमीन विवाद ने मई 2015 में जातिगत हिंसा का रूप ले लिया था. इसमें 6 दलितों को जाट बिरादरी के लोगों ने मौत के घाट उतार दिया था. इस घटना के बाद दलित और जाट बिरादरी आमने-सामने हो गई थी. डांगावास आज भी पश्चिमी राजस्थान की मेघवाल बिरादरी की स्मृतियों में खैरलांजी की तरह दर्ज है.
दूसरा मौक़ा 2 अप्रैल के हालिया प्रदर्शन का है. राजस्थान में कई जगह दलित प्रदर्शनकारियों को हमलों का सामना करना पड़ा था. बाड़मेर, जोधपुर में ख़ास तौर दलित और जाट बिरादरी आमने-सामने हो गई थी. हनुमान बेनीवाल अपने भाषण में जैसलमेर की प्रेस कॉन्फ्रेंस का हवाला दे रहे थे. हो सकता है कि दलितों में उनकी लोकप्रियता ठीक-ठाक हो लेकिन उनकी बुनियादी पहचान जाट लीडर के तौर पर ही है. डांगावास जैसी घटनाओं के बाद दलितों का जाटों के प्रति अविश्वास बढ़ा है. ऐसे में दोनों जातियों को एक फोल्ड में लाना आसान नहीं होगा.
30 मई 2015 को नागौर से 20 किलोमीटर दूर बसे गांव कुम्हारी में अचानक सांप्रदायिक तनाव पैदा हो गया था. यह मुस्लिम बाहुल्य वाला गांव है. वाट्सएप्प के जरिए यहां अफवाह फैलाई गई कि 200 गायों को काटा गया है. जबकि यह जगह सरकार के द्वारा मरे हुए पशुओं के निस्तारण के लिए मुकर्र की गई थी. उस समय आस-पड़ोस के 10-15 गांवों के लोगों ने कुम्हारी को घेर लिया था. इन गांवों में जाटों की तादाद काफी ज्यादा है. हनुमान बेनीवाल ने यहां अपनी सूझबूझ से बड़ी सांप्रदायिक घटना को टाला था. इस घटना के बाद मुस्लिम बिरादरी में उनकी छवि काफी बेहतर हुई थी.
हनुमान बेनीवाल के साथ संकट यह है कि उनका सबसे बड़ा समर्थक जाट बिरादरी से आता है. वो इस बिरादरी के खिलाफ जाने का रिस्क नहीं ले सकते. दलितों और मुस्लिम समुदाय के लोगों को अपने साथ लेने के लिए उन्हें इन्हीं समुदायों के साफ छवि वाले नेता चाहिए होंगे. तो फिलहाल उनकी पूरी सियासी कवायद सिर्फ उनके इर्द-गिर्द है. ऐसे में दूसरे समुदाय के जो नेता उनके साथ जुड़े हुए हैं उनकी कोई मजबूत स्वतंत्र पहचान नहीं बन पा रही है. हो सकता है कि वो जयपुर की अपनी रैली में अपनी पूरी टीम जनता के सामने पेश करें. लेकिन यह विधानसभा चुनाव से तीन महीने पहले होगा. इतने कम समय में इनके लिए अपनी टीम के दलित और मुस्लिम चेहरों को जनता के बीच स्थापित करना टेढ़ी खीर होगी. उन्हें यह काम काफी पहले शुरू कर देना चाहिए था.
*इतिहास का सबक*
राजस्थान में 1977 तक एकछत्र कांग्रेस का शासन रहा. कांग्रेस के वर्चस्व को पहली मर्तबा चुनौती दी भैरों सिंह शेखावत ने. उस समय जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया था. 1977 के चुनाव में कांग्रेस को इंदिरा विरोधी लहर के चलते हार का मुंह देखना पड़ा था. भैरों सिंह शेखावत सूबे के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने थे. 1980 में इंदिरा ने सत्ता में लौटने के बाद भैरों सिंह सरकार को बर्खास्त कर दिया था. इसके बाद उन्हें 10 साल का लंबा इंतजार करना पड़ा था. 1990 में वो मंदिर लहर में दूसरी मर्तबा मुख्यमंत्री बने. 1992 में बाबरी मस्जिद के गिरने के बाद केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार ने एक बार फिर से भैरों सिंह को गद्दी से उतारकर सूबे में राष्ट्रपति शासन लगा दिया था.
1993 में सूबे में नए सिरे से चुनाव हुए. भैरों सिंह शेखावत इस चुनाव में अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए हर पत्थर को उलटकर देख रहे थे. ऐसे में काम आए उनके एक पड़ोसी. दरअसल जयपुर के सिविल लाइन्स में भैरों सिंह शेखावत के घर के ठीक सामने पूर्व मुख्यमंत्री बरकतुल्ला खान घर हुआ करता था. बरकत साहब के चले जाने के बाद यह घर उनके एकलौते दामाद ख़्वाजा हलीम की मिल्कियत में आ गया था. हमील उत्तर प्रदेश में समजवादी पार्टी के बड़े नेता थे. कभी-कभी जयपुर आने पर उनकी मुलाकात भैरों सिंह से भी हो जाया करती थी.
1993 में समाजवादी पार्टी को बने जुम्मा-जुम्मा चार रोज़ हुए थे. उत्तर प्रदेश में सीएम की कुर्सी पर बैठे मुलायम सिंह यादव अपनी नई पार्टी का आधार उत्तर प्रदेश से बाहर ले जाने को बेक़रार थे. हलीम ने उनके सामने राजस्थान चुनाव में उम्मीदवार उतारने की योजना रखी. मुलायम सिंह ने बिना किसी सवाल के इस योजना के लिए हामी भर दी. पुराने पत्रकार बताते हैं कि भैरों सिंह के इशारे पर ही समाजवादी पार्टी राजस्थान विधानसभा चुनाव में उतरी थी. भैरों सिंह शेखावत की योजना यह थी कि समाजवादी पार्टी मुस्लिम वोटों में फाड़ डालने में कामयाब हो जाएगी. इसके लिए उन्होंने अपने भरोसेमंद सिपहसलार रघुबीर शेखावत को हलीम के साथ लगा दिया. हालांकि यह दांव बहुत सफल साबित नहीं हुआ. समाजवादी पार्टी को 18 में 17 सीटों पर जमानत जब्त करवानी पड़ी.
राजस्थान में तीसरा मोर्चा खड़ा करने का सबसे गंभीर प्रयास 2003 में हुआ. देवी सिंह भाटी और लोकेंद्र सिंह कालवी ने राजस्थान सामाजिक न्याय मंच के नाम से अपनी अलग पार्टी खड़ी की. इस पार्टी के पास अपना जातिगत समीकरण था. यह अगड़ी जातियों की गोलबंदी की कोशिश थी. इसमें गैर-जाट पिछड़ी जातियों को यह कहकर शामिल करने की कोशिश की गई थी कि जाटों को पिछड़ा वर्ग में आरक्षण मिलने के बाद शेष 200 से ज्यादा पिछड़ी जातियों का हक़ मारा जाना तय है. ऐसे में इस आरक्षण के खिलाफ एक होना जरूरी है. इस मोर्चे ने 65 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे. इसमें से 60 जगह जमानत जब्त हो गई थी. चार जगहों पर सामाजिक न्याय मंच के उम्मीदवार जमानत बचाने में कामयाब रहे थे. देवी सिंह भाटी इस मोर्चे के अकेले विधायक बने थे. हालांकि इस मोर्चे को बहुत कामयाबी नहीं मिली थी लेकिन इसने कई सीटों का गणित बिगाड़ दिया था.
2008 के चुनाव में किरोड़ी लाल मीणा ने बीजेपी से बगावत करके करीब 18 सीटों पर अपने निर्दलीय विधायक उतारे थे. उनके कुल 4 उम्मीदवार जीत कर आए थे. इसके आलवा उन्होंने पूर्वी राजस्थान की कई सीटों पर बीजेपी को बड़ा नुकसान पहुंचाया था. इस चुनाव में कांग्रेस को 200 में 96 सीट हासिल हुई थी. बीजेपी की हार के लिए किरोड़ी मीणा के भीतरघात को सबसे बड़ी वजह बताया गया था.
पिछले लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के दौरान हनुमान बेनीवाल भी नागौर सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे थे. बीजेपी ने ज्योति मिर्धा के खिलाफ सीआर चौधरी को उतारा था. नागौर कांग्रेस के मजबूत गढ़ों में से एक रही है. 1977 की इंदिरा विरोधी लहर के दौरान उत्तर भारत में इंदिरा गांधी का पत्ता साफ़ हो गया था. उस समय भी यह सीट कांग्रेस के खाते में गई थी. हनुमान बेनीवाल की मौजूदगी ने इस मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया था. वो डेढ़ लाख वोटों के साथ तीसरे स्थान पर रहे थे. ज्योति मिर्धा 73,997 वोट से यह चुनाव हार गई थीं.
फिलहाल राजस्थान में सत्ता विरोधी लहर उभर रही है. हनुमान बेनीवाल की मौजूदगी कई सीटों पर इस लहर में सेंधमारी करेगी. उनकी रैली में उमड़ती भीड़ को देखते हुए कहा जा सकता है कि वो कई जगहों पर मुकाबले को त्रिकोणीय बना सकने का माद्दा रखते हैं. यह कांग्रेस के लिए बुरी खबर है. कांग्रेस को उनकी मौजूदगी का सबसे ज्यदा घाटा उठाना पड़ेगा.
इससे भी बुरी खबर है युवाओं में बढ़ती उनकी लोकप्रियता. जाट परंपरागत तौर पर कांग्रेस के वोटर माने जाते हैं. हालांकि पिछले दस साल में जाटों का एक हिस्सा बीजेपी की तरफ मुड़ा है. लेकिन कांग्रेस का सबसे बड़ा जनाधार इसी बिरादरी में है. हनुमान बेनीवाल जिस तेजी से जाट युवाओं में अपनी पकड़ बना रहे हैं यह कांग्रेस के जनाधार को आने वाले सालों में बड़ा पलीता लगाएगा. सूबे में कांग्रेस के नेता अभी से अपनी जीत को निश्चित मानकर चल रहे हैं. इस अति-विश्वास में वो राजस्थान की जाट पट्टी के अंडरकरंट को सही तरीके से माप नहीं पा रहे हैं. आने वाले समय में उनको इसका घाटा भी उठाना पड़ सकता है.
जब हम रैली से निकल रहे थे तो बारिश के बाद सूरज निकल आया था. उमस अपने साथ पसीने की चिपचिपाहट लेकर आई थी. सड़क किनारे खड़ी बाइक पर दो युवा बैठे हुए थे. उनके बदरंग शर्ट उनके बदन से चिपके हुए थे. आगे वाला शख्स सेल्फी ले रहा था. पीछे वाल उत्तेजना में मुट्ठी बंद करके नारा लगा रहा था, ‘हनुमान बेनीवाल जिंदाबाद’, ‘किसान एकता जिंदाबाद’. ये दोनों युवा 50 किलोमीटर का सफ़र तय करके इस रैली में आए थे. किसानों की कर्जा माफ़ी हनुमान बेनीवाल का सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा है. अगर वो इस चुनाव को विकास की बजाए किसान की तरफ मोड़ पाते हैं तो यह उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक जीत होगी.
ग्राउंड रिपोर्ट: यह निर्दलीय विधायक राजस्थान में कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी मुसीबत बन सकता है!
आज से कोई 15 साल पहले की बात है. जोधपुर में जाट समाज की एक सभा हो रही थी. अटल बिहारी वाजपेयी उस समय प्रधानमंत्री हुआ करते थे. 1999 में उन्होंने राजस्थान के जाटों को केंद्र की OBC लिस्ट में जगह दी. 2003 के राजस्थान विधानसभा चुनाव में वो अपने इसी काम को सियासी तौर पर भुनाना चाहते थे. उस समय राजस्थान बीजेपी के पास कोई बड़ा जाट चेहरा नहीं हुआ करता था. इस निर्वात को भरने के लिए दिल्ली के जाट नेता और वाजपेयी सरकार के मंत्री साहब सिंह वर्मा को राजस्थान के जाट बाहुल्य वाले इलाकों में प्रचार के लिए भेजा गया. जोधपुर की इस सभा को भी वही संबोधित करने जा रहे थे.
दोपहर के 12 बजने को थे. साहब सिंह वर्मा अभी मंच पर पहुंचे नहीं थे. उनके आने से पहले भीड़ को बांधे रखने के लिए मंच स्थानीय नेताओं के हवाले किया गया था. लोग जानते थे कि यह हर राजनीतिक जलसे में मुख्यवक्ता के बोलने से पहले की जरुरी प्रक्रिया है. वो पूरी ऊब के साथ इन वक्ताओं को सुने जा रहे थे. इस बीच मंच पर एक नौजवान को बुलाया गया. बेतरतीब तरीके से बढ़ी हुई दाढ़ी वाले इस नौजवान ने अपने भाषण की पहली कुछ लाइनों में ही जनता को बांध लिया. उसकी आवाज बुलंद थी. उसके पास शब्दों का टोटा नहीं था. वो बोलने के हुनर में तब से माहिर हो चुका था, जब वो राजस्थान विश्वविद्यालय का अध्यक्ष हुआ करता था. उसने बोलना शुरू किया-
“जाट बिरादरी, जो राजस्थान में सबसे ज्यादा बलवान, निडर और संख्या के लिहाज से सबसे मजबूत बिरादरी है. राजनीतिक दृष्टि से भी यह बिरादरी राजस्थान में सबसे आगे है. जाटों को मिला आरक्षण लोगों को सुहाया (पसंद नहीं आया) नहीं. सोशल जस्टिस फ्रंट के नाम से भाई कल्याण सिंह कालवी के लड़के लोकेंद्र सिंह कालवी ने 17 दिसंबर को सीकर के अन्दर एक रैली की. इस रैली में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का षड्यंत्र शामिल है.
पिछले लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में पहली बार गांव से आने वाली जाट महिलाएं सबसे ज्यादा संख्या में चुनकर आईं. अशोक गहलोत कभी नहीं चाहेंगे कि राजस्थान में जाट प्रशासनिक तौर पर मजबूत हों. अगर राजस्थान में जाट प्रशासनिक तौर पर मजबूत हो गया तो यह इनको कुछ भी निकालकर देने वाला नहीं है.”
इस नेता का नाम था हनुमान बेनीवाल. वो अपने भाषण में लोकेंद्र कालवी की जिस सीकर रैली का जिक्र कर रहे थे वो अपने एक बयान के चलते विवाद में फंस गई थी. इस विवाद को समझने के लिए सीकर 1998 में हुई रैली का जिक्र जरुरी है. 1998 में एक नाटकीय घटनाक्रम में इंद्र कुमार गुजराल को प्रधानमंत्री पद से रुखसत होना पड़ा. लोकसभा के लिए मध्यावधि चुनाव हुए. अटल बिहारी वाजपेयी उस दौर में बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हुआ करते थे. बीजेपी ‘लक्ष्य अटल, वोट कमल’ के नारे पर चुनाव लड़ रही थी.
चुनाव प्रचार के लिए अटल बिहारी वाजपेयी राजस्थान के सीकर भी आए. राजस्थान में जाट आरक्षण आंदोलन अपने चरम पर था. सीकर में जाट बिरादरी के वोट बड़ी तादाद में थे. इस समय तक बीजेपी की छवि शहरी पार्टी के तौर पर ही थी. खेतिहर जाटों को अपने खेमे में लाने के लिए उन्होंने अपनी सीकर रैली में सरकार बनने के बाद जाटों को ओबीसी में आरक्षण देने की घोषणा कर दी.
देवी सिंह भाटी उस दौर में राजपूतों के कद्दावर नेता हुआ करते थे. वो बीकानेर के कोलायत से लगातार पांच विधानसभा चुनाव जीत चुके थे. इधर करणी सेना वाले लोकेंद्र सिंह कालवी भी राजपूत समाज में अपनी पकड़ बनाने की जद्दोजहद में लगे हुए थे. दोनों उस समय बीजेपी के नेता हुआ करते थे. दोनों ने मिलकर अगड़ी जातियों के लिए आरक्षण आंदोलन चलाना शुरू किया. इन्होंने इसके लिए एक संगठन भी खड़ा किया, ‘सामाजिक न्याय मंच’. यह जाट आरक्षण आंदोलन का काउंटर नैरेटिव था.
लोकेंद्र कालवी और देवी सिंह भाटी सामाजिक न्याय मंच के बैनर तले जगह-जगह पर सभाएं कर रहे थे. अपनी सीकर रैली में लोकेंद्र कालवी ने आरक्षण की आलोचना करते हुए कहा था, ‘यहां घोड़ों को नहीं मिल रही है घास, और गधे खा रहे हैं चवनप्राश’ .आरक्षण के खिलाफ यह जुमला इससे पहले भी कई मंचों पर इस्तेमाल हो चुका था. राजस्थान में किवदंतियों के चलते इस जुमले ने विवाद को पैदा कर दिया. हर इलाके में जाति विशेष को चिढ़ाने के लिए कुछ शब्द गढ़े जाते हैं. पश्चिमी राजस्थान में जाटों को चिढ़ाने के लिए ‘गधा’ कहा जाता है. इस नुक्ते से देखने पर कालवी के बयान के मायने बदल जाते हैं.
सीकर वो जगह थी जहां जाटों ने अपने लिए आरक्षण लिया. सीकर वो जगह थीं जहां लोकेंद्र सिंह कालवी ने जाट विरोधी ध्रुवीकरण की कोशिश में विवादित बयाना दिया था. लोकेंद्र सिंह कालवी की रैली के 15 साल बाद सीकर में एक और रैली हुई. यह घटनाओं के चक्र के पूरे होने जैसा था. 10 जून 2018 को राजस्थान के सीकर में ‘ किसान हुंकार रैली’ का चौथा जुटान था. इससे पहले वो नागौर, बाड़मेर और बीकानेर में इसी नाम रैली कर चुके हैं. बाड़मेर में उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी से ज्यादा भीड़ जुटाकर राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां हासिल की थीं. 2003 में अपने लिए सियासी जमीन की तलाश कर रहे हनुमान बेनीवाल डेढ़ दशक के भीतर एक मंझे हुए राजनेता के तौर पर उभर चुके हैं. उनके प्रभाव का दायरा एक विधानसभा सीट से बढ़कर पांच-छह जिलों तक फ़ैल चुका है.
2008 में एक फिल्म आई थी ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’. इस फिल्म का एक गाना, ‘जय हो’ बहुत हिट हुआ था. गुलजार के लिखे बोल और सुखविंदर सिंह की आवाज में रहमान का संगीत हमेशा मारक होता है. 2009 में कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में अपने प्रचार अभियान में इस गाने के इस्तेमाल के लिए टी-सीरीज को दो लाख डॉलर चुकाए थे. इस गाने के बोल इस तरह हैं –
“चख ले हां चख ले ये रात शहद है
चख ले रख ले
दिल है दिल आखिरी हद है
रख ले काला काला काजल तेरा
कोई काला जादू है ना..
आजा आजा जींद शामियाने के तले
आजा ज़री वाले नीले आसमान के तले
जय हो…”
किसान हुंकार रैली के पोस्टर पर जलसा शुरू होने का वक़्त 11 बजे दर्ज था. हनुमान बेनीवाल को मंच पहुंचते-पहुंचते 2 बज गए. जैसे ही मंच की तरफ बढ़ने लगे पंडाल में चारों तरफ बिखरे लोग मंच के सामने सिमट आए. जिन्हें जगह नहीं वो मिली वो दो पंडालों की सरहद के तौर पर लगाए गए लोहे के पाइपों पर चढ़ गए. बैकग्राउंड में यही गाना बज रहा था. जिसके बोलों से किसी को कोई मतलब नहीं था. लोग गाने के आखिरी हिज्जे को जोर से गा रहे थे. इस तरह जब हनुमान बेनीवाल मंच पर चढ़े, स्पीकर से लेकर भीड़ तक हर जगह ‘जय हो-जय हो’ की प्रतिध्वनि थी.
एक छात्रनेता इतना असरदार क्योंकर हुआ?
आखिर इस आदमी के इतना लोकप्रिय होने की वजह क्या है? क्यों हरियाणा से लेकर बाड़मेर तक लोग बेनीवाल की रैली अटेंड करने पहुंच जा रहे हैं. इसका जवाब हमें मिला रैली में आए हुए पप्पू बेनीवाल से. चुरू में रहने वाले पप्पू एक दफा जोधपुर जा रहे थे. जोधपुर के पास उनकी गाड़ी का एक्सीडेंट हो गया. उन्होंने आधी रात को मदद के लिए हनुमान बेनीवाल के पास फोन किया. उनका कहना है कि हनुमान बेनीवाल आधे घंटे में खुद मौके पर पहुंच गए थे. उनकी खुद की विधानसभा में आपको ऐसी दर्जनों कहानियां मिल जाएंगी. इलाके के हर आदमी के पास उनके नंबर हैं. वो अपना फोन खुद उठाते हैं. अगर नहीं उठा पाते तो पलटकर फोन करते हैं. उन्होंने लोगों में यह भरोसा कायम किया है कि वो किसी भी वक़्त उन तक पहुंच सकते हैं.
राजस्थान का पश्चिमी इलाका जाट राजनीति का गढ़ रहा है. किसी दौर में राजस्थान के तीन बड़े सियासी जाट घराने इसी इलाके से आते थे. नाथूराम मिर्धा, परसराम मदेरणा मारवाड़ में और शीशराम ओला शेखावाटी में जाटों के सबसे बड़े नेता थे. संयोगवश ये तीनों ही परिवार अपनी राजनीतिक जमीन गंवा चुके हैं. हनुमान के उभार के पीछे इस निर्वात ने भी बड़ी भूमिका निभाई है.
*जेएमएम समीकरण*
हनुमान बेनीवाल मंच पर पांच लाख लोगों को जुटाने का दावा कर रहे थे. हालांकि यह दावा ही था. लेकिन सीकर में जहां उनका पहले कोई ख़ास आधार नहीं था, उन्होंने इतनी भीड़ जुटा ली थी कि वो कांग्रेस और बीजेपी के नेताओं की पेशानी में बल ला पाएं. सीकर, झुंझनू, चुरू के अलावा बाड़मेर, नागौर, जोधपुर और बीकानेर से भी उनके समर्थक उनकी रैली में पहुंचे हुए थे. लगभग आधे घंटे के उनके भाषण में जो बात सबसे ज्यादा मार्के की थी वो कुछ इस तरह से बयान की गई-
*“बाड़मेर की रैली में जिस जेएमएम मोर्चे की घोषणा हमने की थी वो प्रदेश में आगे-आगे चलेगा.”*
जेएमएम मोर्चा आखिर है क्या? इस बात का जवाब देने से पहले चाय के कप पर हुई एक बतकही का जिक्र करना चाहिए. ये 2017 के जाड़े की बात है. हनुमान बेनीवाल नागौर में किसान हुंकार रैली का पहला संस्करण दाग चुके थे. जयपुर के जवाहर कला केंद्र में तीन पत्रकार इसी रैली पर बतकही कर रहे थे. इनमें से एक पत्रकार का कहना था कि अगर यह आदमी कायदे से चले तो राजस्थान का मुलायम सिंह यादव बन सकता है. सिर्फ जाटों के दम पर वो मुख्यमंत्री नहीं बन पाएंगे. सत्ता हासिल करने के लिए बेनीवाल को अल्पसंख्यक और दलित बिरादरी को अपने साथ लाना होगा.
बाड़मेर में घटनाओं ने प्रत्याशित मोड़ लिया. जनवरी 2018 में यहां हुई किसान हुंकार रैली में बेनीवाल जब मंच पर चढ़े तो उनकी जेब में नया जातिगत समीकरण पड़ा हुआ था. यह समीकरण था जेएमएमएम. माने जाट, मेघवाल, मुस्लिम और मीणा. मेघवाल पश्चिमी राजस्थान में दलितों की सबसे बड़ी बिरादरी है. इस मंच पर किरोड़ी लाल मीणा उनके साथ थे. मार्च 2018 में मीणा ने दस साल के लंबे वनवास के बाद बीजेपी का रुख किया. जाते-जाते वो अपने साथ इस समीकरण का आखरी ‘एम’ भी ले गए. सीकर में हनुमान बेनीवाल के पास सिर्फ जाट, मेघवाल और मुस्लिम का समीकरण बचा हुआ था. उनके मंच पर दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के कई नेता थे.
अपने भाषण में वो इस साल के 2 अप्रैल को हुए दलित आंदोलन का जिक्र कर रहे थे. उन्होंने बताया कि उस समय वो जैसलमेर में थे. उन्होंने उस समय प्रेस कॉन्फ्रेंस करके दलितों का पूरा समर्थन किया था. वो कहते हैं-
*“दिल्ली की सरकार ने 23 दलितों को मौत के घाट उतार दिया. मरने के लिए इस देश में या तो गुर्जर है, या जाट है, या दलित है, या मुसलमान है. ये वो तमाम कौमें हैं जिनका आज तक शोषण हुआ.”*
इससे पहले वो अपने की भाषण की शुरुआत तेजा जी, बजरंगबली और रामसा पीर के जयकारे से करते हैं. तेजा जी राजस्थान के लोक देवता हैं. जाटों के बीच उनकी मान्यता बहुत ज्यादा है. इसी तरह से रामदेव जी महाराज भी राजस्थान के लोक देवता हैं. उन्हें मुस्लिम समुदाय के लोग रामसा पीर के नाम से पूजते हैं. पोकरण के पास रामदेवरा में उनका बड़ा मंदिर है. रामदेव जी मेघवाल समुदाय में भी बेहद लोकप्रिय हैं. यह जयकारा उनके चुनावी समीकरण का स्पष्टीकरण था.
*कितना सफल होगा समीकरण?*
पिछले दौर में दलित उत्पीड़न के दो मामलों में राजस्थान, राष्ट्रीय मीडिया की चर्चाओं में रहा. पहला मौक़ा था डांगावास में दलित समुदाय पर हुआ हमला. नागौर की मेड़ता तहसील के गांव डांगावास में एक मामूली जमीन विवाद ने मई 2015 में जातिगत हिंसा का रूप ले लिया था. इसमें 6 दलितों को जाट बिरादरी के लोगों ने मौत के घाट उतार दिया था. इस घटना के बाद दलित और जाट बिरादरी आमने-सामने हो गई थी. डांगावास आज भी पश्चिमी राजस्थान की मेघवाल बिरादरी की स्मृतियों में खैरलांजी की तरह दर्ज है.
दूसरा मौक़ा 2 अप्रैल के हालिया प्रदर्शन का है. राजस्थान में कई जगह दलित प्रदर्शनकारियों को हमलों का सामना करना पड़ा था. बाड़मेर, जोधपुर में ख़ास तौर दलित और जाट बिरादरी आमने-सामने हो गई थी. हनुमान बेनीवाल अपने भाषण में जैसलमेर की प्रेस कॉन्फ्रेंस का हवाला दे रहे थे. हो सकता है कि दलितों में उनकी लोकप्रियता ठीक-ठाक हो लेकिन उनकी बुनियादी पहचान जाट लीडर के तौर पर ही है. डांगावास जैसी घटनाओं के बाद दलितों का जाटों के प्रति अविश्वास बढ़ा है. ऐसे में दोनों जातियों को एक फोल्ड में लाना आसान नहीं होगा.
30 मई 2015 को नागौर से 20 किलोमीटर दूर बसे गांव कुम्हारी में अचानक सांप्रदायिक तनाव पैदा हो गया था. यह मुस्लिम बाहुल्य वाला गांव है. वाट्सएप्प के जरिए यहां अफवाह फैलाई गई कि 200 गायों को काटा गया है. जबकि यह जगह सरकार के द्वारा मरे हुए पशुओं के निस्तारण के लिए मुकर्र की गई थी. उस समय आस-पड़ोस के 10-15 गांवों के लोगों ने कुम्हारी को घेर लिया था. इन गांवों में जाटों की तादाद काफी ज्यादा है. हनुमान बेनीवाल ने यहां अपनी सूझबूझ से बड़ी सांप्रदायिक घटना को टाला था. इस घटना के बाद मुस्लिम बिरादरी में उनकी छवि काफी बेहतर हुई थी.
हनुमान बेनीवाल के साथ संकट यह है कि उनका सबसे बड़ा समर्थक जाट बिरादरी से आता है. वो इस बिरादरी के खिलाफ जाने का रिस्क नहीं ले सकते. दलितों और मुस्लिम समुदाय के लोगों को अपने साथ लेने के लिए उन्हें इन्हीं समुदायों के साफ छवि वाले नेता चाहिए होंगे. तो फिलहाल उनकी पूरी सियासी कवायद सिर्फ उनके इर्द-गिर्द है. ऐसे में दूसरे समुदाय के जो नेता उनके साथ जुड़े हुए हैं उनकी कोई मजबूत स्वतंत्र पहचान नहीं बन पा रही है. हो सकता है कि वो जयपुर की अपनी रैली में अपनी पूरी टीम जनता के सामने पेश करें. लेकिन यह विधानसभा चुनाव से तीन महीने पहले होगा. इतने कम समय में इनके लिए अपनी टीम के दलित और मुस्लिम चेहरों को जनता के बीच स्थापित करना टेढ़ी खीर होगी. उन्हें यह काम काफी पहले शुरू कर देना चाहिए था.
*इतिहास का सबक*
राजस्थान में 1977 तक एकछत्र कांग्रेस का शासन रहा. कांग्रेस के वर्चस्व को पहली मर्तबा चुनौती दी भैरों सिंह शेखावत ने. उस समय जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया था. 1977 के चुनाव में कांग्रेस को इंदिरा विरोधी लहर के चलते हार का मुंह देखना पड़ा था. भैरों सिंह शेखावत सूबे के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने थे. 1980 में इंदिरा ने सत्ता में लौटने के बाद भैरों सिंह सरकार को बर्खास्त कर दिया था. इसके बाद उन्हें 10 साल का लंबा इंतजार करना पड़ा था. 1990 में वो मंदिर लहर में दूसरी मर्तबा मुख्यमंत्री बने. 1992 में बाबरी मस्जिद के गिरने के बाद केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार ने एक बार फिर से भैरों सिंह को गद्दी से उतारकर सूबे में राष्ट्रपति शासन लगा दिया था.
1993 में सूबे में नए सिरे से चुनाव हुए. भैरों सिंह शेखावत इस चुनाव में अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए हर पत्थर को उलटकर देख रहे थे. ऐसे में काम आए उनके एक पड़ोसी. दरअसल जयपुर के सिविल लाइन्स में भैरों सिंह शेखावत के घर के ठीक सामने पूर्व मुख्यमंत्री बरकतुल्ला खान घर हुआ करता था. बरकत साहब के चले जाने के बाद यह घर उनके एकलौते दामाद ख़्वाजा हलीम की मिल्कियत में आ गया था. हमील उत्तर प्रदेश में समजवादी पार्टी के बड़े नेता थे. कभी-कभी जयपुर आने पर उनकी मुलाकात भैरों सिंह से भी हो जाया करती थी.
1993 में समाजवादी पार्टी को बने जुम्मा-जुम्मा चार रोज़ हुए थे. उत्तर प्रदेश में सीएम की कुर्सी पर बैठे मुलायम सिंह यादव अपनी नई पार्टी का आधार उत्तर प्रदेश से बाहर ले जाने को बेक़रार थे. हलीम ने उनके सामने राजस्थान चुनाव में उम्मीदवार उतारने की योजना रखी. मुलायम सिंह ने बिना किसी सवाल के इस योजना के लिए हामी भर दी. पुराने पत्रकार बताते हैं कि भैरों सिंह के इशारे पर ही समाजवादी पार्टी राजस्थान विधानसभा चुनाव में उतरी थी. भैरों सिंह शेखावत की योजना यह थी कि समाजवादी पार्टी मुस्लिम वोटों में फाड़ डालने में कामयाब हो जाएगी. इसके लिए उन्होंने अपने भरोसेमंद सिपहसलार रघुबीर शेखावत को हलीम के साथ लगा दिया. हालांकि यह दांव बहुत सफल साबित नहीं हुआ. समाजवादी पार्टी को 18 में 17 सीटों पर जमानत जब्त करवानी पड़ी.
राजस्थान में तीसरा मोर्चा खड़ा करने का सबसे गंभीर प्रयास 2003 में हुआ. देवी सिंह भाटी और लोकेंद्र सिंह कालवी ने राजस्थान सामाजिक न्याय मंच के नाम से अपनी अलग पार्टी खड़ी की. इस पार्टी के पास अपना जातिगत समीकरण था. यह अगड़ी जातियों की गोलबंदी की कोशिश थी. इसमें गैर-जाट पिछड़ी जातियों को यह कहकर शामिल करने की कोशिश की गई थी कि जाटों को पिछड़ा वर्ग में आरक्षण मिलने के बाद शेष 200 से ज्यादा पिछड़ी जातियों का हक़ मारा जाना तय है. ऐसे में इस आरक्षण के खिलाफ एक होना जरूरी है. इस मोर्चे ने 65 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे. इसमें से 60 जगह जमानत जब्त हो गई थी. चार जगहों पर सामाजिक न्याय मंच के उम्मीदवार जमानत बचाने में कामयाब रहे थे. देवी सिंह भाटी इस मोर्चे के अकेले विधायक बने थे. हालांकि इस मोर्चे को बहुत कामयाबी नहीं मिली थी लेकिन इसने कई सीटों का गणित बिगाड़ दिया था.
2008 के चुनाव में किरोड़ी लाल मीणा ने बीजेपी से बगावत करके करीब 18 सीटों पर अपने निर्दलीय विधायक उतारे थे. उनके कुल 4 उम्मीदवार जीत कर आए थे. इसके आलवा उन्होंने पूर्वी राजस्थान की कई सीटों पर बीजेपी को बड़ा नुकसान पहुंचाया था. इस चुनाव में कांग्रेस को 200 में 96 सीट हासिल हुई थी. बीजेपी की हार के लिए किरोड़ी मीणा के भीतरघात को सबसे बड़ी वजह बताया गया था.
पिछले लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के दौरान हनुमान बेनीवाल भी नागौर सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे थे. बीजेपी ने ज्योति मिर्धा के खिलाफ सीआर चौधरी को उतारा था. नागौर कांग्रेस के मजबूत गढ़ों में से एक रही है. 1977 की इंदिरा विरोधी लहर के दौरान उत्तर भारत में इंदिरा गांधी का पत्ता साफ़ हो गया था. उस समय भी यह सीट कांग्रेस के खाते में गई थी. हनुमान बेनीवाल की मौजूदगी ने इस मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया था. वो डेढ़ लाख वोटों के साथ तीसरे स्थान पर रहे थे. ज्योति मिर्धा 73,997 वोट से यह चुनाव हार गई थीं.
फिलहाल राजस्थान में सत्ता विरोधी लहर उभर रही है. हनुमान बेनीवाल की मौजूदगी कई सीटों पर इस लहर में सेंधमारी करेगी. उनकी रैली में उमड़ती भीड़ को देखते हुए कहा जा सकता है कि वो कई जगहों पर मुकाबले को त्रिकोणीय बना सकने का माद्दा रखते हैं. यह कांग्रेस के लिए बुरी खबर है. कांग्रेस को उनकी मौजूदगी का सबसे ज्यदा घाटा उठाना पड़ेगा.
इससे भी बुरी खबर है युवाओं में बढ़ती उनकी लोकप्रियता. जाट परंपरागत तौर पर कांग्रेस के वोटर माने जाते हैं. हालांकि पिछले दस साल में जाटों का एक हिस्सा बीजेपी की तरफ मुड़ा है. लेकिन कांग्रेस का सबसे बड़ा जनाधार इसी बिरादरी में है. हनुमान बेनीवाल जिस तेजी से जाट युवाओं में अपनी पकड़ बना रहे हैं यह कांग्रेस के जनाधार को आने वाले सालों में बड़ा पलीता लगाएगा. सूबे में कांग्रेस के नेता अभी से अपनी जीत को निश्चित मानकर चल रहे हैं. इस अति-विश्वास में वो राजस्थान की जाट पट्टी के अंडरकरंट को सही तरीके से माप नहीं पा रहे हैं. आने वाले समय में उनको इसका घाटा भी उठाना पड़ सकता है.
जब हम रैली से निकल रहे थे तो बारिश के बाद सूरज निकल आया था. उमस अपने साथ पसीने की चिपचिपाहट लेकर आई थी. सड़क किनारे खड़ी बाइक पर दो युवा बैठे हुए थे. उनके बदरंग शर्ट उनके बदन से चिपके हुए थे. आगे वाला शख्स सेल्फी ले रहा था. पीछे वाल उत्तेजना में मुट्ठी बंद करके नारा लगा रहा था, ‘हनुमान बेनीवाल जिंदाबाद’, ‘किसान एकता जिंदाबाद’. ये दोनों युवा 50 किलोमीटर का सफ़र तय करके इस रैली में आए थे. किसानों की कर्जा माफ़ी हनुमान बेनीवाल का सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा है. अगर वो इस चुनाव को विकास की बजाए किसान की तरफ मोड़ पाते हैं तो यह उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक जीत होगी.